हरियाली के उस मोड़ पर
सुबह की पहली किरण जब धान की हरी-भरी पत्तियों पर पड़ी, तो ऐसा लगा मानो प्रकृति ने अपनी चुप्पी तोड़ दी हो। हवा में एक सुखद ठंडक थी, और रास्ता धूप की पतली चादर ओढ़े धीरे-धीरे जाग रहा था।
ये कहानी है "सेमरपुर" गांव की...
जहाँ लकड़ी के झोपड़ी जैसे मकान, सीढ़ीनुमा खेत, और हल्के भूरे रंग की पगडंडी ही वहाँ की असली पहचान हैं। उस पगडंडी पर उस दिन तीन लोग चल रहे थे —
- कमली बुआ — गाँव की सबसे बूढ़ी लेकिन सबसे ताक़तवर औरत।
- मोहन काका — जो हर सुबह दूध लेकर पहाड़ी के उस पार जाते हैं।
- रानी — एक नई बहू, जिसकी आँखों में अब भी शहर के सपने झिलमिलाते हैं।
सड़क के किनारे खड़ा फलों का ठेला जैसे इस गांव की सादगी का प्रतीक था। पपीते, आम, कटहल और केले — सब कुछ ताज़ा और बिन कहे मोह लेने वाला।
“आज बारिश होगी,” कमली बुआ ने कहा, बादलों को देख कर।
“बरसात का पानी फिर से खेतों को जिंदा कर देगा,” मोहन काका ने मुस्कराकर जवाब दिया।
रानी कुछ नहीं बोली, बस सड़क के उस छोर को देखती रही जहाँ हरे खेतों की परतें धीरे-धीरे आसमान में घुल रही थीं।
कहानी का सार
ये गांव कोई आम जगह नहीं थी। ये सांसों की वो महक थी जो शहर की भीड़ में खो गई थी। ये रिश्तों की वो गर्माहट थी जो अब शब्दों में नहीं, नजरों में थी।
हर दिन वहां कुछ नया नहीं होता था, लेकिन हर दिन कुछ सच्चा होता था।
— यही वो मोड़ था, जहाँ ज़िंदगी शहर से नहीं, सुकून से मिलती थी।